अच्छे व्यक्तियों से अच्छा परिवार बनता है, परिवार से समाज और अच्छे समाज से एक अच्छा देश ।लेकिन समाज के कुछ लोग संतुलन ही बिगाड़ना शुरू कर दे तो फिर स्थिति विचारणीय हो जाती हैं।मैं बात कर रही हूँ जेएनयू की। जहाँ से कहने के लिए तो बड़ी बड़ी प्रतिभाए मेरिट पर अपना स्थान बनाती है बड़े नेक विचार लेकर होहल्ला मचाती हैं लेकिन सत्य क्या हैं?अगर वहाँ हज़ारों की संख्या में गरीब विद्यार्थियों का मेला है तो फिर अन्य यूनिवर्सिटियों में या अन्य कॉलेजों में जो बच्चे पढ़ रहे हैं वो क्या हैं? जो वक्त से पढाई पूरी करके अपने घर की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए कही पर कठिन परिश्रम कर रहे हैं या फिर अच्छी स्थिति में आने के बाद अन्य जरूरतमंदों की मदद कर रहे हैं। सोचने वाली बात…
1-ये कैसी प्रतिभावान विद्यार्थियों की संख्या है जो अधेड़ावस्था में भी कोई जॉब नहीं पकड़ पाई और ये लोग अपने प्रतिभा से घर और समाज ,देश का बोझ कम करने के बजाय बोझ क्यों बन रहे हैं?
2-ये पढ़ने वाले विद्यार्थी अटेंडेंस का क्यों विरोध करते हैं।
3-आकड़ो पर जाए तो लगभग पर स्टूडेंट डेढ़ लाख सरकार इनपर खर्च करती हैं जो कि एक बड़ी राशि है जो जनता के टैक्स से भरा जाता हैं।जिन गरीबी का हवाला देकर ये रहने खाने का अपना इंतजाम करते हैं वही वास्तविक गरीब लोग मेहनत से देश के कार्यो में योगदान दे कर मुफ्तखोरों को भी पाल रहे हैं।
4-इन मुफ्तखोरों का कहना है कि जो पैसे मंदिरों , और त्योहारों के तेल में खर्च होते है वो इनके शिक्षा में लगाये जाए।पहले ये मुफ्तखोर मंदिरों में भंडारा खाना छोड़ दे, सिगरेट ,शराब और अय्याशियों में खर्च करने से फुर्सत मिले तो उन पैसों को जेएनयू में ही जो वास्तविक रूप से कुछ गरीब विद्यार्थियों की संख्या है उनपर सहयोग में खर्च करें तो पैसे का सद्पयोग हो।
सबसे दुःखद बात कि ये कैसे देश के प्रतिभावान स्टूडेंट्स है जो देश के महापुरुषों को नहीं पहचानती ।विवेकानंद न केवल युग पुरुष और युवा चेतना के प्रतीक है बल्कि उनका विचार वो हीरा है जो देश मे ही नहीं विदेशों में भी चमक बिखेरता हैं।उनकी मूर्तियां तोड़ कर ये क्या साबित करना चाहते है?देश की टुकड़े करने की बात कहकर ये क्या संदेश देना चाहते है?ये कैसी युवा पीढ़ी है जो सिर्फ लेलिन, मार्क्स और चे ग्वेरा को पहचानती हैं।
वैसे जब दिए को बुझना होता है तो बड़ी तेजी से फड़फड़ाता है वही हाल जेएनयू का है क्योंकि अपनी कारगुजारियां वो स्वयं सामने ला रहे हैं जो अब तक अंधेरे में थी।
* वैसे मुफ्त का खा कर और मुफ्त में एक ही जगह लंबे समय तक रहने से जो चर्बी चढ़ी थी उसे हटाने के लिए व्यायाम अब अच्छे करवाये जा रहे हैं।
* इन मुफ़्खोरो को अगर मेहनत सीखना हो तो सीमा पर डटे जवानों का जीवन देखे जो इनसे कम उम्र में भी सबकुछ सह कर देश की रक्षा कर रहे हैं,
अंत मे यही कहना है कि हमे चाहिए आजादी
मुफ्तखोरों से,देशद्रोहियों से,उपद्रवियों से,धर्म संस्कृति और मानवता के दुश्मनों से।
वंदना चौबे की फेसबुक वॉल से
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